सम्पादकीय

जमीं पे रह के फरिश्तों का काम करता है।


    नियति जिससे ऐतिहासिक कार्य कराना चाहती है, उसकी पृष्ठ भूमि स्वयं बैठकर तैयार करती है। एक दिन भारतीय समाजवाद और समाजवादी नेताओं पर उपलब्ध प्रामाणिक पुस्तकों पर वरिष्ठ समाजवादी नेता, मंत्री व लेखकीय सरोकार रखने वाले शिवपाल जी से चर्चा हो रही थी तो सहसा उन्होंने पूछा कि नेताजी (मा0 मुलायम सिंह) पर कितनी पुस्तकें लिखी गयी हैं जो उनके व्यक्तित्व व वैचारिक अवदान को रेखांकित करती हैं। खोजने पर 6 पुस्तकें मिलीं, लेकिन सभी मँहगी व मोटी पुस्तकें हैं जो या तो पुस्तकालयों में रखी जा सकती हैं या जिन्हें सिर्फ सम्पन्न लोग खरीद कर पढ़ सकते हैं। शिवपाल जी ने नेताजी पर 30-40 पन्नों की पुस्तक लिखने को कहा, मैंने उनसे आग्रह किया कि आप उनके अनुज व उनके संघर्षों से प्रतिबद्ध सहयोगी तथा साक्षी हैं। आप उन पर प्रामाणिकता के साथ लिख सकते हैं, सम्पादन की जिम्मेदारी मेरी है। छोटी पुस्तक वह भी किसी विराट व बहुआयामी व्यक्तित्व पर लिखना निःसंदेह दुरूह कार्य है। शिवपाल जी ने रोज एक घण्टा समय अध्ययन के लिए निकाल कर यह कठिन कार्य सहजतापूर्वक किया ताकि नई पीढ़ी जाने कि कितने झंझावातों से जूझकर आरोहावरोहों व उच्चावचनों से टकराते हुए एक छोटे से गांव से निकलकर नेताजी आज 21वीं सदी के समाजवादी आंदोलन के अग्रदूत, परचम वाहक व प्रतीक-पुरुष बने हैं। नई पीढ़ी को उनके जीवन-दर्शन से प्रेरणा मिलती है कि सफलता का कोई लघुमार्ग (Short Cut) नहीं होता, गलत रास्तों से जो सफलता मिलती है वो तात्कालिक होती है, ऐतिहासिक नहीं, उससे कोई पुच्छल तारा ही बन सकता है, ध्रुव नक्षत्र नहीं। सार्वजनिक जीवन में सैद्धान्तिक प्रतिबद्धता व संलग्नता एक न एक दिन विशिष्ट स्थान जरूर दिलाती है। जब देश में डा0 लोहिया लोकनायक जयप्रकाश नारायण, मधुलिमये, लोकबंधु राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर एम0एस0जोशी सदृश संत परम्परा के नेताओं के महाप्रयाण के पश्चात् एक शून्य आ गया, आन्दोलन व विचारधारा के क्षितिज पर अंधेरा छा गया, नेताजी चंद्रमा की भाँति उभरे और कालिमा को सीधी चुनौती दी। उन्होंने आचार्य चाणक्य की सूक्ति, ’’एकश्चंद्र तमो हन्ति न च सहस्र तारकः’’ को चरितार्थ किया और साम्प्रदायिकता, पूँजीवादी, शोषण व मानवीय विभेद रूपी अंधेरों से लड़ते हुए सुनहरी सुबह के सूत्रधार बने। लोहिया विचारधारा को आत्मसात कर किशोरावस्था में दलितों के यहां जाकर भोजन कर, सामाजिक वर्जनाओं को चुनौती देने वाले मुलायम सिंह जी जब अनिर्वचनीय संघर्ष के बल पर सरकार बनाते हैं तो ऐसे प्रावधान करते हैं कि दलित व अल्पसंख्यक मुख्यधारा में आकर सशक्त बने। हिन्दी के लिए सुदूर मद्रास में जाकर जनमत जुटाने वाले वे तीसरे नेता हैं, यह काम उनसे पहले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी व डा0 लोहिया ने किया। अंग्रेजी, चीन, अमरीका व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के खिलाफ जन सामान्य के पक्ष आज संसद व उसके बाहर कोई ताकतवर स्वर है तो वह मुलायम सिंह जी का है जिससे प्रतिबिम्बित होता है कि देश की अस्मिता, गरिमा व माटी के हितों के लिए वे किसी भी बड़ी शक्ति से लड़ सकते हैं और उन्होंने लड़ा भी है। गरीबों, मजबूरों, कमजोरों की मदद करने वाली जमात में अग्रगण्य हैं, कई बार ज़रूरी शासकीय व सियासी कामों को छोड़ते हुए उन्हें अस्पताल में दुर्घटनाग्रस्त हुए गरीबों को पहुँचाते हुए देखा गया है, गरीबों की व्यथा सुनकर उनकी आँखे अक्सर डबडबा जाती हैं-


ख़ुदा    मेरे    महबूब    को   सलामत   रखे
जमीं पे रह के फरिश्तों का काम करता है।


    संघर्षमूर्ति शिवपाल चाचा द्वारा उन पर लिखी पुस्तक को सम्पादित कर मैं स्वयं को धन्यातिधन्य पा रहा हूँ। बहुत कुछ सीखने और जानने को मिला। उनका जीवन लोहिया के बाद हुए समाजवादी आंदोलन का दर्पण है, जिसमें पूरे इतिहास की छवि साफ-साफ देखी जा सकती है। वे यदि आज नहीं होते तो नई पीढ़ी इतिहास विशेषकर भारत छोड़ो आंदोलन, अपातकाल के महत्त्वपूर्ण अध्यायों से अवगत नहीं हो पाती। उन्होंने आम महिलाओं व गरीब तथा पिछड़े परिवार की प्रतिभाओं को विशेष अवसर देकर राजनीति में स्थापित किया, जिससे लोकतंत्र की व्यापकता बढ़ी अन्यथा लोकतंत्र बड़े घरानों व ऊँची अट्टालिकाओं तथा अंग्रेजी बोलने वालों की चैखट में कैद होकर रह जाता। आज समाजवाद इस देश की अनिवार्य आवश्यकता बन चुका है। क्षेत्रीय असंतुलन एवं आर्थिक विषमता बढ़ती जा रही है। असंतोष व आक्रोश चरम पर है। पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की एक ग़ज़ल जिसे अमर शहीद अशफाक उल्ला खान बेड़ी बजा-बजाकर गाते थे-


उरूज-ए-कामयाबी  पर  कभी  हिन्दोस्ताँ  होगा,
रिहा सय्याद के हाथों जब अपना आशियाँ होगा,
शहीदों  की  चिताओं  पर  लगेंगे  हर  बरस  मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।


    यह वस्तुतः मात्र एक ग़ज़ल नहीं, अमर शहीदों का सपना है जो ग़ज़ल के रूप में ढलकर उच्चारित हुई। यह आज भी वहीं खड़ी है, जहाँ लिखी गई थी। देश ’’उरूज-ए-कामयाबी’’ से मीलों पीछे है। भारत का स्थान समग्र मानवीय विकास के दृष्टिकोण से 133 और प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से 159 देशों के बाद है। महिलाओं की दशा और भी खराब है। मात्र 23 देश ऐसे हैं जहाँ की स्त्रियों की स्थिति भारत से बदतर है। दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले, सातवें बड़े क्षेत्रफल वाले देश भारत के आम आदमी की दशा क्यों इतनी खराब है ? कारण स्पष्ट है कि समाजवाद के रास्ते से विचलित होने से देश की यह हालत है। हमारे महान क्रान्तिदर्शी नेताओं को पहले ही आभास हो चुका था। चन्द्रशेखर आजाद व भगत सिंह ने ही हिन्दुस्तान रिपब्लिकन आर्मी का नाम बदलकर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट आर्मी करते हुए यह गर्जना की थी कि समय आ गया है कि हम समाजवाद को अपना अन्तिम लक्ष्य घोषित करें। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने साम्राज्यवाद के खिलाफ सिंहनाद करते हुए कहा कि सच्चे समाजवादी को साम्राज्यवाद विरोधी भूमिका निभानी होगी। देश में समाजवाद की स्थापना करना अगला दायित्व होगा। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का अभिकथन, ’’मुझे सच्चा समाजवादी समझा जाना चाहिए। इस सीधे-सादे सिद्धान्त की उपेक्षा से न केवल हमारे देश बल्कि दुनियां के अन्य भागों में भी भुखमरी व दरिद्रता दिखाई पड़ती है’’। समाजवाद हमारे आदर्श पुरुषों का आदर्श है, स्वतंत्रता के उपरान्त आचार्य जी डा0 लोहिया व लोकनायक जयप्रकाश व उनकी टोली ने भले ही समाजवादी दर्शन को मूर्तरूप देने के सद्प्रयास किये किन्तु कांग्रेस व भाजपा ने सत्ता मद में समाजवाद को भुलाने में कोर-कसर बाकी न रखा। 21वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध (वर्तमान काल खण्ड) में केवल मुलायम सिंह जी एक मात्र ऐसे नेता हैं जो समाजवाद के लक्ष्य को पूरी प्रतिबद्धता के साथ हर मंच से दोहराते हैं। भारत में आर्थिक विषमता का दृष्य देखिये गोवा (192652), दिल्ली (1,75,812) ,हरियाणा (109227) जैसे राज्यों की प्रतिव्यक्ति आय जहाँ एक लाख रुपये से अधिक है, वहीं उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की प्रतिव्यक्ति आय 30 हजार रुपये (मात्र 294171) से भी कम है। भारत के प्रतिव्यक्ति आय 60972 रुपये के मुकाबले यह आधी भी नहीं है, जबकि आजादी के वक्त यू0पी0 की औसत आमदनी 260 रुपये राष्ट्रीय औसत आय 248 रुपये से 12 रुपये अधिक है। शीर्ष 20 परिवारों की औसत आय व 20 फीसदी आम परिवारों के बीच 1 अरब 32 करोड़ गुना का अंतर है। इस भयावह विषमता पर शांति, सुख और सौहार्द की स्थापना असंभव है। इसलिए डा0 लोहिया अधिकतम न्यूनतम आय के बीच एक अनुपाते दस का अंतर चाहते थे। थानों में आम आदमी बिना किसी नेता, अफसर या पत्रकार से फोन कराये बिना जा नहीं सकता। थानेदार व कलक्टर आज भी जनता के नौकर के बजाय खुद को मालिक समझते हैं जो लोकतंत्र के मूल भावना व मूल्य के खिलाफ है। समाज के दिमाग की बनावट महिलाओं के प्रति आज भी मध्ययुगीन ही है। 80 फीसदी गालियाँ नारी केन्द्रित होती हैं माँ या बहन को सम्बोधित करते हुए दी जाती हैं। डा0 लोहिया ने ”राम राज्य“ की जगह सीता राम राज्य की परिकल्पना की थी, जिसमें राम और सीता का बराबर महत्त्व व पूजा हो, उन्होंने वैसे ही समाज की रचना का दर्शन किया जिसमें ’’द्रौपदी’’ अथवा किसी नारी को वस्तु न समझा जाय। स्त्रियों व कमजोर लोगों के व्यक्तित्व को संकुचित करने वाला यह दौर विनाश को आमंत्रण देने वाला है। ’’वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का नारा देने वाले भारत में पहले परिवार के अर्थ में दादा-दादी, मौसा-मौसी से लेकर उनके नातेदार तक आते थे, अब परिवार से अभिप्राय सिर्फ पत्नी व पुत्र-पुत्री तक सीमित हो गया। संकुचित व सीमित करने वाली मानसिकता समाज के सामने सबसे बड़ा संकट है, जिससे सिर्फ समाजवाद के माध्यम से ही निपटा जा सकता है। महात्मा गाँधी, पंडित नेहरू व डा0 लोहिया तीनों ही एक व्यक्ति की विद्वता ज्ञान व मीमांसा को श्रेष्ठ मानते थे, वे थे भारतीय समाजवाद के जनक कहे जाने वाले आचार्य नरेन्द्र देव। उन्होंने अपनी पुस्तक ’’राष्ट्रीयता और समाजवाद’’ के अध्याय ’’समाजवाद की ओर’’ में लिखा है कि समाजवाद के अतिरिक्त दूसरी योजनाएँ व्यक्तित्व को छोटा करती हैं, मनुष्य को मनुष्य से दूर करती हैं। आचार्य सम्पूर्णानन्द ने भी इस अभिकथन को दोहराया है। भारतीय मनीषियों के अलावा अल्बर्ट आइंसटीन जैसे मर्मज्ञ ने समाजवाद ही क्यों (Short Cut) नाम से प्रकाशित एक लघु पुस्तक में स्पष्ट शब्दों में माना है, ’’मेरा दृढ़ विश्वास है तमाम बुराईयों को दूर करने का एक मात्र उपाय है, समाजवादी अर्थव्यवस्था की स्थापना और इसके साथ ही साथ एक ही शिक्षा व्यवस्था का प्रचलन, जिसका झुकाव सामाजिक लक्ष्यों की ओर हो। मैं व्यक्तियों की सामाजिक चेतना को कुंठित हो जाने को पूंजीवाद की सबसे बड़ी बुराई मानता हूँ और इसका इलाज समाजवाद ही है। यही बात आइन्स्टीन ने डा0 लोहिया के साथ अमरीका में हुए संवाद में भी कही थी। आज समान शिक्षा नीति मुलायम सिंह जी व समाजवादी पार्टी के अलावा और किसी की कार्ययोजना में नहीं है। डा0 लोहिया ने अमरीका में रंग-भेद के खिलाफ सत्याग्रह करते हुए गोरों से कहा था कि एक दिन कोई काला आदमी अमरीका का राजा (राष्ट्रप्रति) होगा, तब असंभव सी प्रतीत होने वाली बात अन्ततोगत्वा सही साबित हुई, ओबामा आज अमरीका के राष्ट्रपति हैं। सोवियत रूस के विखरने की भविष्यवाणी लोहिया ने तब किया जब सोवियत संघ समुन्द्र के ज्वार की तरह दुनियां में बढ़ रहा था, बाद में सोवियत संघ रूस बिखरा। उन्होंने भारत में कांग्रेस की हार व समाजवादी सरकार की स्थापना का जिक्र कई बार कई उद्बोधनों व लेखों में किया है, उत्तर प्रदेश में उनके शिष्य के मार्गदर्शन में समाजवादी सरकार की स्थापना हो चुकी है अर्थात् लोहिया का कथन आधा सच सिद्ध हो चुका है, पूरी-पूरी संभावना है कि 2014 के आम चुनावों में हो जायेगा। मुलायम सिंह जी के मुरीदों में जहाँ स्वनाम धन्य शायर कैफी आज़मी, मनीषी बी0 सत्य नारायण रेड्डी, जस्टिस राजेन्द्र सच्चर, रवि राय, प्रो0 रजनी कोठारी सदृश महनीय नाम हंै तो हम जैसे सामान्य लोग भी हैं, आज़मगढ़ का घुरहुवा रिक्शा चालक व हज़रतगंज का करिया कुली भी है-


”उसकी बुलंदी का अंदाजा लगाना मुश्किल है
 वो  आसमां  है,  मगर  सर  झुकाए चलता है“


    अपातकाल के बाद समाजवादी परचम और आंदोलन को 21वीं सदी में पूरी ताकत से स्थापित करने वाले मुलायम सिंह जी जैसे लोग बिरले पैदा होते हैं। ईश्वर उनकी मनस्विता, तेजस्विता, प्रभु विष्णुता, सहृदयता, सरलता, सहजता व साधुता को अक्षुण्ण बनाये रखें।


” कुदरत से साथ नुद्रत-ए-फन भी है इनके पास
  ये   वो     बुजुर्ग    हैं,  जो  पुराने   नहीं  हुए । “

दीपक मिश्र